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नमस्ते ही क्यों?

अभिवादन के लिए उत्तम शब्द नमस्ते जी.🙏 “नमस्ते” शब्द संस्कृत भाषा का है। इसमें दो पद हैं – नम:+ते । इसका अर्थ है कि ‘आपका मान करता हूँ।’ संस्कृत व्याकरण के नियमानुसार “नम:” पद अव्यय (विकाररहित) है। इसके रूप में कोई विकार=परिवर्तन नहीं होता, लिङ्ग और विभक्ति का इस पर कुछ प्रभाव नहीं। नमस्ते का साधारण अर्थ सत्कार = सम्मान होता है। अभिवादन के लिए आदरसूचक शब्दों में “नमस्ते” शब्द का प्रयोग ही उचित तथा उत्तम है।  नम: शब्द के अनेक शुभ अर्थ हैं। जैसे - दूसरे व्यक्ति या पदार्थ को अपने अनुकूल बनाना, पालन पोषण करना, अन्न देना, जल देना, वाणी से बोलना, और दण्ड देना आदि। नमस्ते शब्द वेदोक्त है। वेदादि सत्य शास्त्रों और आर्य इतिहास (रामायण, महाभारत आदि) में ‘नमस्ते’ शब्द का ही प्रयोग सर्वत्र पाया जाता है।  सब शास्त्रों में ईश्वरोक्त होने के कारण वेद का ही परम प्रमाण है, अत: हम परम प्रमाण वेद से ही मन्त्रांश नीचे देते है :- नमस्ते                        परमेश्वर के लिए 1. - दिव्य देव नमस्ते अस्तु॥ – अथर्व० 2/2/1   ...
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कर्मफल सिद्धांत - 5

कर्मफल के नियम भाग - 5 कर्म के विषय में अगली जानकारी--  --------------------------------------------- *कर्मों के प्रकार।* मूल रूप से कर्म दो प्रकार के होते हैं, और विस्तार से चार प्रकार के।  मूल दो प्रकार ये हैं -- निष्काम कर्म और सकाम कर्म। 1- *निष्काम कर्म उन्हें कहते हैं , जो शुभ कर्म मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से किए जाते हैं।* जैसे वेद आदि उत्तम शास्त्र पढ़ना पढ़ाना, ईश्वर का ध्यान करना, सत्य बोलना, सेवा करना परोपकार करना, दान देना इत्यादि । 2- सकाम कर्म - *और जो शुभ अशुभ कर्म सांसारिक सुख (धन सम्मान प्रसिद्धि आदि प्राप्त करने) के उद्देश्य से किए जाते हैं, वे सकाम कर्म कहलाते हैं।*  ये सकाम कर्म तीन प्रकार के होते हैं। (1) शुभ (2) अशुभ और (3) मिश्रित। 1- शुभ कर्म - जिन कर्मों के करने से अपना भी सुख बढ़े, और दूसरों का भी। और वेदों में उनके करने का विधान किया हो, वे शुभ कर्म कहलाते हैं। जैसे यज्ञ करना, वेदप्रचार करना, ईश्वर की उपासना करना, किसी रोगी की सेवा करना, किसी समाज सेवा के कार्य में दान देना, सत्य बोलना, मीठा बोलना, अच्छा सुझाव देना, शाकाहारी भोजन खाना आदि। 2- ...

कर्मफल सिद्धांत - 4

कर्मफल के नियम भाग - 4 कर्म के विषय में अन्य जानकारी ---- ----------------------------------------- कर्म करने के तीन साधन -- (1) मन (2) वाणी और (3) शरीर। जीवात्मा जो कर्म करता है , वह तीन साधनों से करता है । मनसे , वाणी से, और शरीरसे। 1- मन से कर्म - दूसरों के प्रति अच्छी भावना रखना, अथवा बुरी भावना रखना, ईश्वर के प्रति श्रद्धा विश्वास रखना, अथवा नास्तिकता रखना, दूसरों की वस्तुएं चुराने की बात मन में सोचना, अथवा दूसरों को सहयोग देने की बात सोचना इत्यादि। ये मानसिक अच्छे बुरे कर्म कहलाते हैं।        (नोट - मन में सुबह से रात्रि तक विचार चलते रहते हैं , कि मैं चोरी करूं या न करूँ? दान दूं या न दूँ? सेवा करूं या न करूं? धोखा दूं या न दूं? इस प्रकार से जब तक मन में दो पक्ष बने रहते हैं, और व्यक्ति निर्णय कुछ नहीं कर पाता, तब तक उसका नाम है *विचार*.   इस स्थिति में यह अभी *कर्म नहीं बना।* जब व्यक्ति इन दो में से एक बात का निर्णय कर लेता है, कि चोरी करूंगा, दान दूंगा, सहयोग करूंगा, सेवा करूंगा, इस प्रकार से मानसिक निर्णय कर लेने पर, अब वही विचार *कर्म की कोटि*...

कर्मफल सिद्धांत - 3

कर्मफल के नियम भाग -3 (वेद मनुस्मृति सत्यार्थ प्रकाश न्याय दर्शन आदि वैदिक शास्त्रों के आधार पर) कर्मफल अथवा न्याय, दोनों का एक ही अभिप्राय है। कर्मफल या न्याय के कुछ सामान्य नियम हैं, जिनसे हमें यह विषय कुछ ठीक प्रकार से समझ में आ सकता है।  *मैं पहले भी अनेक बार निवेदन कर चुका हूं कि यह कर्म फल का विषय बहुत कठिन गहरा और विस्तृत है। इसे पूरा ठीक-ठीक तो केवल ईश्वर ही जानता है। ऋषियों ने वेद आदि शास्त्रों को पढ़कर गंभीर चिंतन मनन करके कुछ मोटे स्तर पर इस विषय को जाना है। मैंने भी उन वेदों और ऋषियों के ग्रंथों को लंबे समय तक गंभीरतापूर्वक पढ़ा सुना जाना समझा और पढ़ाया है। उन्हीं के आधार पर मैं यह छोटा सा लेख प्रस्तुत कर रहा हूं।* कर्मफल के सिद्धान्त -------------------------- (1) अच्छे कर्म का अच्छा फल मिलता है। जैसे यज्ञ करना, दान देना, माता पिता की सेवा करना, ईश्वर की उपासना करना, प्राणियों की रक्षा करना, कमजोर लोगों की मदद करना इत्यादि, ये सब अच्छे कर्म हैं। इन सब अच्छे कर्मों का अच्छा फल अर्थात सुख ही मिलता है। (2) बुरे कर्म का बुरा फल मिलता है। जैसे झूठ बोलना, चोरी करना, धोखा दे...

कर्मफल सिद्धांत - 2

कर्मफल के नियम भाग -2 (वर्तमान जन्म) (मुख्य आधार -- योगदर्शन के पाद 2, सूत्र 12,13, सत्यार्थप्रकाश, आर्योद्देश्यरत्नमाला आदि वैदिक शास्त्र) पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर इस जन्म में हमें ईश्वर की ओर से, कर्मफल के रूप में 3 वस्तुएं मिलती हैं। जिनका नाम है -- *जाति, आयु और भोग।* ये 3 वस्तुएं हमें पिछले जन्म के कर्मों के आधार पर मिली हैं।           *इन 3 फलों में से पहला फल है, जाति।* जाति शब्द का अभिप्राय है, शरीर। मनुष्य का शरीर, कुत्ते का, गधे का, हाथी का, भेड़ बकरी का, गाय भैंस का, शेर भेड़िए का, मछली या मगरमच्छ का शरीर, आदि आदि। जो भी शरीर मिला है, यह हमारे पूर्व जन्म के कर्मों का फल है।  *दूसरा फल है, आयु।* अर्थात जन्म से लेकर मृत्यु के बीच का समय। अगर किसी मनुष्य का शरीर, जन्म से लेकर 80 वर्ष तक जिया, 80 वर्ष में उसकी मृत्यु हुई, तो यह 80 वर्ष का समय, उसकी आयु कहलाएगी। यह भी उसके पिछले जन्म के कर्मों का फल है। *तीसरा फल है भोग*. भोग का तात्पर्य है, जन्म होते ही माता-पिता के घर में जो संपत्ति थी, जमीन मकान मोटर गाड़ी खाना पीना सोना चांदी नौकर च...

कर्मफल सिद्धांत - 1

कर्मफल के नियम ---- (भाग 1. पुनर्जन्म) (मुख्य आधार -- सत्यार्थप्रकाश का 9वाँ समुल्लास आदि वैदिक शास्त्र) आत्मा की सत्ता हम पिछले लेखों में प्रमाण और तर्क से सिद्ध कर चुके हैं।  आत्मा एक नित्य वस्तु है। चेतन पदार्थ है। वह कर्म करने में स्वतंत्र है। फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था के आधीन है। आत्मा जैसे भी अच्छे या बुरे कर्म करती है, ईश्वर भी वैसे ही उसके कर्मो का अच्छा या बुरा फल आत्मा को देता है। कुछ कर्मों का फल इस जन्म में ईश्वर दे देता है, और कुछ कर्मों का फल ईश्वर अगले जन्म में देता है। तो अगले जन्म में किस प्रकार से कर्मों का फल मिलता है। इस विषय में यह छोटा सा लेख प्रस्तुत किया जाता है। पहला नियम - यदि कोई मनुष्य पूरे जीवन में 50% अच्छे काम करें और 50% बुरे काम करे, तो उसको अगला जन्म साधारण मनुष्य का मिल जाएगा, मतलब फोर्थ क्लास फैमिली = मजदूर चपरासी आदि के घर उसे जन्म मिलेगा।  दूसरा नियम - यदि कोई व्यक्ति अच्छे कर्म 50% से अधिक करे और पाप काम करे, तो उसे अच्छे विद्वान धनवान बुद्धिमान (गुण कर्म योग्यता से वैश्य क्षत्रिय या ब्राह्मण परिवार, जन्म से नहीं) ऐसे मनुष्यों के घ...

16 संस्कार - संक्षिप्त परिचय

ओ३म् सोलह संस्कारों के नाम और संक्षिप्त परिचय :- १. गर्भाधानम् २. पुंसवनम् ३. सीमन्तोन्नयनम् ४. जातकर्मसंस्कारः ५. नामकरणम् ६. निष्क्रमणसंस्कारः ७. अन्नप्राशनसंस्कारः ८. चूडाकर्मसंस्कारः ९. कर्णवेधसंस्कारः १०. उपनयनसंस्कारः ११. वेदारम्भसंस्कारः १२. समावर्त्तनसंस्कारः १३. विवाहसंस्कारः १४. वानप्रस्थाश्रमसंस्कारः १५. संन्यासाश्रमसंस्कारः १६. अन्त्येष्टिकर्मविधिः ★ १. गर्भाधानम् - गर्भाधान उसको कहते हैं कि जो " गर्भस्याऽऽधानं वीर्यस्थापनं स्थिरीकरणं यस्मिन् येन वा कर्मणा , तद् गर्भाधानम् ।" गर्भ का धारण , अर्थात् वीर्य का स्थापन गर्भाशय में स्थिर करना जिससे होता है । उसी को गर्भाधान संस्कार कहते है । ● २. पुंसवनम् - पुंसवन उसको कहते हैं जो ऋतुदान देकर गर्भस्थिती से दूसरे वा तीसरे महीने में पुंसवन संस्कार किया जाता है । अर्थात् गर्भाधान के दूसरे या तीसरे महीने में जो संस्कार किया जाता है । उसे पुंसवन संस्कार कहते है । ■ ३. सीमन्तोन्नयनम् - जिससे गर्भिणी स्त्री का मन संतुष्ट आरोग्य गर्भ स्थिर उत्कृष्ट होवे और प्रतिदिन बढ़ता जावे । उसे सीमन्तोन्नयन कहते हैं । ◆ गर्भमास से चौथे महीने...

हवन की विधि

हवन की विधि ओ३म् जो आर्य प्रतिदिन यज्ञ करते है, उनके लिए महर्षि ने संस्कारविधि में दैनिक अग्निहोत्र विधि इस प्रकार लिखी है आचमन मंत्र ओं शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये । शंयोरभिस्त्रवन्तु न: ।। अग्न्याधान-मन्त्र   ओं भूर्भुव: स्वः ।। इस मंत्र का उच्चारण करके ब्राह्मण, क्षत्रिय वा वैश्य के घर से अग्नि ला अथवा घृत का दीपक जला, उससे कपूर में लगा, कसी एक पात्र में धर, उसमें छोटी-छोटी लकड़ी लगा के यजमान या पुरोहित उस पात्र को हाथों में उठा, यदि ग्राम हो तो चिमटे से पकड़कर, अगले मंत्र से आधान करे। वह मंत्र यह है (सं० वि० सामान्यप्रकरण) ओं भूर्भुवः स्वर्धौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा । तस्यास्ते पृथिवी देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाधायादधे ।। इस मंत्र में दो उपमालडकार हैं। हे मनुष्य लोगों ! तुम ईश्वर से तीन लोकों के उपकार करने वा आपनी व्याप्ति से सूर्य प्रकाश के समान, तथा उत्तम गुणों से पृथ्वी के समान अपने-अपने लोकों में निकट रहनेवाले रचे हुए अग्नि को कार्य की सिद्धि के लिए यत्न के साथ उपयोग करो । ओम् उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते संसृजेथामयं च । आस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस...

आत्मा साकार या निराकार - 10

*आत्मा साकार है या निराकार भाग - 10* ओ३म् *आत्मा निराकार है, साकार नहीं।* इस बात को हम अपने लेख के पिछले अनेक भागों में प्रमाण और तर्क से अच्छी प्रकार से सिद्ध कर चुके हैं। और पूर्वपक्षियों के अनेक प्रश्नों और आक्षेपों का उत्तर भी भली प्रकार से दे चुके हैं।         फिर भी, पूर्व पक्षी लोगों का आग्रह है कि सत्यार्थ प्रकाश से ही इस बात को सिद्ध किया जाए। यद्यपि यह आग्रह ऋषियों के सिद्धांत के विरुद्ध तथा अनुचित है। (क्योंकि महर्षि गौतम जी एवं महर्षि दयानंद सरस्वती जी, अपनी किसी भी बात को सिद्ध करने के लिए, प्रत्यक्ष आदि 8 प्रमाण, तर्क तथा पंचावयव प्रक्रिया को स्वीकार करते हैं।)      फिर भी दुर्जन दोष न्याय से हम अनेक प्रमाण सत्यार्थ प्रकाश में से यहां प्रस्तुत करेंगे और उनके आधार पर भी हम यह सिद्ध करेंगे, कि *आत्मा निराकार है, साकार नहीं।* आत्मा को निराकार सिद्ध करने वाले कुछ और प्रमाण व तर्क यहाँ प्रस्तुत किये जाते हैं। प्रमाण 1 - सत्यार्थ प्रकाश के सातवें समुल्लास में पृष्ठ 158 पर प्रश्न लिखा है। *प्रश्न - जीव स्वतंत्र है वा परतंत्र?* *उत्तर - अपने...

आत्मा साकार या निराकार - 9

आत्मा साकार या निराकार, भाग - 9 ओ३म्            (पूर्वपक्ष - उत्तरपक्ष)     आत्मा को साकार मानने वालों का पक्ष हम *पूर्वपक्ष* के नाम से प्रस्तुत करेंगे। और हमारा पक्ष हम *उत्तरपक्ष* के नाम से प्रस्तुत करेंगे।        यदि आत्मा को साकार मानने वाले लोग ईमानदारी बुद्धिमत्ता और निष्पक्ष भाव से इन बातों पर विचार करेंगे, तो हमें आशा है, उनको भी यह बात ठीक प्रकार से समझ में आ जाएगी, कि *आत्मा साकार नहीं है, बल्कि निराकार ही है।*          पूर्वपक्ष वालों से विनम्रतापूर्वक हमारे ये प्रश्न हैं, वे भी कृपया इन प्रश्नों का उत्तर सभ्यता पूर्वक देवें। 1 - पूर्वपक्ष - *जो स्थूल होते हैं,... वे सर्वथा निराकार नहीं होते किन्तु परमेश्वर से स्थूल और अन्य कार्य से सूक्ष्म आकार रखते हैं।* -सत्यार्थ प्रकाश, अष्टम समुल्लास, पृष्ठ 177. यहाँ पर स्थूल वस्तु में सूक्ष्म आकार महर्षि दयानंद जी ने स्वीकार किया है। और आत्मा को सत्यार्थ प्रकाश में स्थूल लिखा है। इसलिए आत्मा में आकार है। उत्तरपक्ष - यहां पर पूर्वपक्षी की चालाकी देखिए। म...