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आत्मा साकार या निराकार - 10

*आत्मा साकार है या निराकार भाग - 10*

ओ३म्

*आत्मा निराकार है, साकार नहीं।* इस बात को हम अपने लेख के पिछले अनेक भागों में प्रमाण और तर्क से अच्छी प्रकार से सिद्ध कर चुके हैं। और पूर्वपक्षियों के अनेक प्रश्नों और आक्षेपों का उत्तर भी भली प्रकार से दे चुके हैं। 
       फिर भी, पूर्व पक्षी लोगों का आग्रह है कि सत्यार्थ प्रकाश से ही इस बात को सिद्ध किया जाए। यद्यपि यह आग्रह ऋषियों के सिद्धांत के विरुद्ध तथा अनुचित है। (क्योंकि महर्षि गौतम जी एवं महर्षि दयानंद सरस्वती जी, अपनी किसी भी बात को सिद्ध करने के लिए, प्रत्यक्ष आदि 8 प्रमाण, तर्क तथा पंचावयव प्रक्रिया को स्वीकार करते हैं।)
     फिर भी दुर्जन दोष न्याय से हम अनेक प्रमाण सत्यार्थ प्रकाश में से यहां प्रस्तुत करेंगे और उनके आधार पर भी हम यह सिद्ध करेंगे, कि *आत्मा निराकार है, साकार नहीं।* आत्मा को निराकार सिद्ध करने वाले कुछ और प्रमाण व तर्क यहाँ प्रस्तुत किये जाते हैं।

प्रमाण 1 - सत्यार्थ प्रकाश के सातवें समुल्लास में पृष्ठ 158 पर प्रश्न लिखा है।
*प्रश्न - जीव स्वतंत्र है वा परतंत्र?*
*उत्तर - अपने कर्तव्य कर्मों में स्वतंत्र और ईश्वर की व्यवस्था में परतंत्र है। "स्वतंत्रः कर्ता" यह पाणिनीय व्याकरण का सूत्र है। जो स्वतंत्र अर्थात स्वाधीन है, वही कर्ता है।*

महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने इन वाक्यों में जीव को स्वतंत्र, स्वाधीन और कर्ता बताया है। इससे सिद्ध है कि जीव (आत्मा) निराकार है। क्योंकि जितनी भी साकार वस्तुएं हैं, उनमें से कोई भी स्वतंत्र, स्वाधीन अथवा कर्ता नहीं है। बल्कि वे तो जड़, पराधीन और साधन आदि के रूप में हैं। जैसे स्कूटर कार रेलगाड़ी लकड़ी लोहा मेज कुर्सी रोटी कपड़ा आदि। 

फिर इसके आगे लिखा है।
*प्रश्न - स्वतंत्र किसको कहते हैं?*
*उत्तर - जिसके आधीन शरीर, प्राण, इंद्रिय और अंतःकरण आदि हों।*

इन वाक्यों में भी महर्षि दयानंद जी ने स्वतंत्र की परिभाषा में यह बताया है कि *शरीर प्राण इंद्रिय और अंतःकरण आदि जिसके आधीन हों, वह स्वतंत्र है।* ये लक्षण भी चेतन और निराकार वस्तु के ही सिद्ध होते हैं।
लोहा लकड़ी कार स्कूटर आदि जड़ और साकार वस्तुओं के आधीन तो शरीर प्राण इंद्रिय अंतःकरण आदि नहीं होते। वे तो स्वयं जड़ पदार्थ हैं, तथा दूसरे चेतन पदार्थों के आधीन हैं।


प्रमाण 2 - सत्यार्थप्रकाश के सप्तम समुल्लास में पृष्ठ 159 पर लिखा है।
*प्रश्न - जीव और ईश्वर का स्वरूप गुण कर्म और स्वभाव कैसा है? उत्तर - दोनों चेतन स्वरूप हैं । स्वभाव दोनों का पवित्र अविनाशी और धार्मिकता आदि है। ......जीव के संतानोत्पत्ति उनका पालन शिल्पविद्या आदि अच्छे बुरे कर्म हैं।....... (जीवन) प्राण का धारण करना (मन:) निश्चय स्मरण और अहंकार करना (गति) चलना (इंद्रिय) सब इंद्रियों को चलाना (अंतर्विकार) भिन्न भिन्न क्षुधा तृषा हर्ष शोक आदि युक्त होना, ये जीवात्मा के गुण परमात्मा से भिन्न हैं। इन्हीं से आत्मा की प्रतीति करनी, क्योंकि वह स्थूल नहीं है।*

        अब महर्षि जी के इन वचनों के आधार पर कुछ प्रश्न उठते हैं। *जो लोग आत्मा को साकार कहते हैं, वे कृपया उत्तर दें, कि महर्षि दयानंद जी ने जो ऊपर जीवात्मा के लक्षण बताएं हैं , क्या ये लक्षण साकार वस्तुओं में उपलब्ध होते हैं?* यदि नहीं होते, तो इससे सिद्ध होता है कि *आत्मा साकार नहीं है, निराकार है*. वे प्रश्न इस प्रकार से हैं।

(क) - *क्या पृथ्वी लोहा लकड़ी कार रेल विमान आदि साकार वस्तु का स्वभाव पवित्र, और धार्मिकता आदि भी हो सकता है?*

(ख) - *क्या पृथ्वी लोहा लकड़ी कार रेल विमान आदि साकार वस्तु संतानोत्पत्ति उनका पालन और शिल्पविद्या आदि का काम भी कर सकती है?* 

(ग) - *क्या पृथ्वी लोहा लकड़ी कार रेल विमान आदि साकार वस्तु में इच्छा ज्ञान प्रयत्न सुख दुख का अनुभव करना, प्राण धारण करना, निश्चय स्मरण करना भूख प्यास लगना आदि गुण कर्म भी हो सकते हैं?*
हमारे चारों ओर लोहा लकड़ी स्कूटर कार मेज कुर्सी आदि हजारों साकार वस्तुएं विद्यमान हैं, इनमें से किसी भी साकार वस्तु में ऊपर बताए जीवात्मा वाले लक्षण उपलब्ध नहीं हैं। *इससे सिद्ध होता है कि जीवात्मा साकार नहीं है, निराकार है।*


प्रमाण 3 - सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम समुल्लास में महर्षि दयानंद जी ने पृष्ठ 175 पर लिखा है, 
 *जो ब्रह्म से पृथिव्यादि कार्य उत्पन्न होवे, तो पृथिव्यादि कार्य के जड़ आदि गुण ब्रह्म में भी होवें, अर्थात् जैसे पृथिव्यादि जड़ हैं, वैसा ब्रह्म भी जड़ हो जाय।*

       इन वाक्यों में महर्षि दयानंद जी ने पृथ्वी आदि साकार पदार्थों को जड़ वस्तु बतलाया है। इससे सिद्ध होता है कि यदि आत्मा को भी साकार मानेंगे, तो उसे भी जड़ मानना होगा। क्या पूर्व पक्षी लोग आत्मा को जड़ मान लेंगे? यदि नहीं मानेंगे, तो क्यों व्यर्थ में हठ किए बैठे हैं ? उन्हें ईमानदारी से सत्य को स्वीकार कर लेना चाहिए। तो सार यह हुआ कि

*आत्मा चेतन वस्तु होने से निराकार है, साकार नहीं।*


प्रमाण 4 - सत्यार्थ प्रकाश के सातवें समुल्लास में पृष्ठ 166 पर सगुण निर्गुण के प्रसंग में महर्षि दयानंद जी एक प्रश्न के उत्तर में ऐसा लिखते हैं ।
*प्रश्न - भला एक म्यान में दो तलवार कभी नहीं रह सकती हैं। एक पदार्थ में सगुणता और निर्गुणता कैसे रह सकती हैं?*

*उत्तर - जैसे जड़ के रूप आदि गुण हैं, और चेतन के ज्ञान आदि गुण, जड़ में नहीं हैं। वैसे चेतन में इच्छा आदि गुण हैं, और रूपादि, जड़ के गुण नहीं हैं।*

       इन वाक्यों में महर्षि दयानंद जी ने जड़ वस्तु में रूप आदि गुण स्वीकार किए हैं, और चेतन के इच्छा आदि गुण, जड़ वस्तु में स्वीकार नहीं किए । 
       इसी प्रकार से चेतन वस्तु में इच्छा आदि गुण स्वीकार किए हैं, और रूप आदि जड़ वस्तु के गुण, चेतन वस्तु में स्वीकार नहीं किए ।
      इसका अर्थ यह हुआ कि आत्मा में इच्छा आदि गुण हैं, तो वह चेतन हुआ। और *जैसे ईश्वर इच्छा आदि गुणों से युक्त होने के कारण चेतन है, वह निराकार है। तो आत्मा भी इच्छा आदि गुणों से युक्त होने के कारण चेतन है, वह भी निराकार है।*
      रूप आदि गुण पृथ्वी आदि जड़ वस्तु के होते हैं । आत्मा तो जड़ नहीं है। इसलिए उसमें रूप आदि गुण नहीं हैं। जब रूप आदि नहीं हैं, तो आकार सिद्ध नहीं हुआ। *इसलिए आत्मा निराकार है , साकार नहीं।*

       हमने इस लेख में चार प्रमाण महर्षि दयानंद सरस्वती जी के सत्यार्थ प्रकाश से प्रस्तुत किए हैं। अब एक प्रमाण महर्षि कणाद जी का वैशैषिक दर्शन से भी देख लीजिए।

प्रमाण 5 - *विभवान्महानाकाशः। तथा चात्मा।।
तदभावात् अणु मनः। तथा चात्मा।।*
(वैशैषिक दर्शन 7-2-22,23.)
 अर्थात व्यापक होने से आकाश महत् परिमाण वाला है। इसी प्रकार से व्यापक होने से परमात्मा भी महत् परिमाण वाला है। व्यापकत्व का अभाव होने से मन अणु अर्थात छोटा (एकदेशी) है। इसी प्रकार से व्यापक न होने से आत्मा भी अणु अर्थात् छोटा (एकदेशी) है।
      वैशैषिक दर्शन में, इस प्रसंग में, परिमाण गुण की परीक्षा चल रही है। इस दर्शन में दो प्रकार से महत्परिमाण और अणुपरिमाण स्वीकार किया गया है। 
          एक- जिस वस्तु में बहुत सारे परमाणु अर्थात् अवयव हों, और वह आँखों से भी दिखती हो, उसमें महत्परिमाण होता है। जैसे पृथ्वी। 
        दूसरा - परमाणु भले ही न हों, परंतु वह व्यापक हो, तो भी उसमें महत्परिमाण माना जाता है। जैसे आकाश।
      तो इन सूत्रों में कहा है, कि आकाश और ईश्वर दोनों व्यापक हैं। *व्यापक होने से ये दोनों महत्परिमाण वाले हैं। न कि इनमें अवयव अधिक होने से, ये दोनों महत्परिमाण वाले हैं।*
          जैसे यहां ईश्वर को व्यापक होने के कारण महत्परिमाण वाला स्वीकार किया, अवयव या परमाणु अधिक होने से महत्परिमाण वाला नहीं माना, इसीलिए वह निराकार है।

       इसी प्रकार से उक्त सूत्रों में आत्मा को भी अणु परिमाण वाला कहा गया है। क्यों? उसका भी कारण यही है कि आत्मा भी व्यापक न होने से अणु अर्थात छोटा (एकदेशी) है। आत्मा के एकदेशी होने में भी व्यापकता न होना कारण है। न कि अवयव कम होना। *यदि आत्मा साकार होता, तो उसके एकदेशी होने में अवयवों की न्यूनता को कारण बताया जाता ; व्यापकता का अभाव कारण नहीं बताया जाता।* इसलिये इन सूत्रों से सिद्ध है कि *आत्मा और ईश्वर दोनों निराकार हैं।*

      इसलिए यह बात इन प्रमाणों एवं तर्क से अच्छी प्रकार से सिद्ध होती है कि *आत्मा साकार नहीं, बल्कि निराकार है.*

- स्वामी विवेकानंद परिव्राजक - दर्शन योग महाविद्यालय 

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