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कर्मफल सिद्धांत - 4

कर्मफल के नियम भाग - 4

कर्म के विषय में अन्य जानकारी ----
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कर्म करने के तीन साधन --
(1) मन (2) वाणी और (3) शरीर।

जीवात्मा जो कर्म करता है , वह तीन साधनों से करता है । मनसे , वाणी से, और शरीरसे।

1- मन से कर्म - दूसरों के प्रति अच्छी भावना रखना, अथवा बुरी भावना रखना, ईश्वर के प्रति श्रद्धा विश्वास रखना, अथवा नास्तिकता रखना, दूसरों की वस्तुएं चुराने की बात मन में सोचना, अथवा दूसरों को सहयोग देने की बात सोचना इत्यादि। ये मानसिक अच्छे बुरे कर्म कहलाते हैं।
       (नोट - मन में सुबह से रात्रि तक विचार चलते रहते हैं , कि मैं चोरी करूं या न करूँ? दान दूं या न दूँ? सेवा करूं या न करूं? धोखा दूं या न दूं? इस प्रकार से जब तक मन में दो पक्ष बने रहते हैं, और व्यक्ति निर्णय कुछ नहीं कर पाता, तब तक उसका नाम है *विचार*. 
 इस स्थिति में यह अभी *कर्म नहीं बना।* जब व्यक्ति इन दो में से एक बात का निर्णय कर लेता है, कि चोरी करूंगा, दान दूंगा, सहयोग करूंगा, सेवा करूंगा, इस प्रकार से मानसिक निर्णय कर लेने पर, अब वही विचार *कर्म की कोटि* में आ जाता है। *तब वह मानसिक कर्म बन जाता है।*)

2- वाणी से कर्म - वाणी से सत्य बोलना, झूठ बोलना, मीठा बोलना, कठोर बोलना, प्रसंग से बोलना, बिना प्रसंग के बोलना, निंदा चुगली करना, या वेद मंत्र पाठ करना इत्यादि। ये वाणी के अच्छे बुरे कर्म कहलाते हैं।

3- शरीर से कर्म - जो कर्म स्थूल शरीर से किए जाते हैं, उनको शारीरिक कर्म कहते हैं। जैसे यज्ञ करना, किसी रोगी की सेवा करना, किसी समाज सेवा के कार्य में दान देना, माता-पिता की शरीर से रक्षा और सेवा करना, किसी विकलांग को सहायता देना, वैदिक धर्म के प्रचार के लिए किसी ब्रह्मचारी/ संन्यासी को दान देना इत्यादि अच्छे कर्म। अथवा शरीर से चोरी करना, लूटमार करना, हत्या करना, व्यभिचार करना इत्यादि ये सब बुरे शारीरिक कर्म हैं।
      इस प्रकार से जीवात्मा, मन वाणी और शरीर, इन तीन साधनों से अच्छे बुरे कर्म करता है।


कर्म के विषय में अगली जानकारी-- 
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एक और दृष्टिकोण से भी तीन प्रकार के कर्म होते हैं। उनके नाम हैं, क्रियमाण कर्म, संचित कर्म और प्रारब्ध कर्म।

1- क्रियामाण कर्म - जो कर्म अभी चल रहा है पूरा नहीं हुआ, उसका नाम *क्रियामाण कर्म* है। जैसे कोई व्यक्ति 20 रोटियां बनाएगा. तो रोटी बनाते बनाते उसने 12 रोटियाँ बना ली, तथा 8 बनानी बाकी हैं। अभी रोटी बनाने का काम पूरा नहीं हुआ, चल रहा है।
तो इसका नाम है *क्रियामाण कर्म* है।

2- संचित कर्म - जब उस व्यक्ति ने 20 रोटियां पूरी बना ली, काम समाप्त हो गया। और यह उसके कर्म के खाते में जमा हो गया। इस जमा हो गए कर्म का नाम *संचित कर्म* है।

3- प्रारब्ध कर्म - संचित कर्मों में से जिन कर्मों का फल मिलना प्रारंभ हो जाता है, उनका नाम *प्रारब्ध कर्म* है।
        उदाहरण एक व्यक्ति के खाते में मान लीजिए 50,000 कर्म (पिछले जन्मों में किये हुए) पहले से जमा हैं। ये उसके संचित कर्म हैं। अब इस चालू जीवन में उसने 10,000 कर्म और किए। जैसे जैसे वह कर्म करता जाता है , वैसे वैसे वे कर्म उसके खाते में जमा होते जाते हैं .
     इस जीवन में किये 10,000 कर्मों में से मान लीजिए 2,000 कर्मों का फल उसे इसी जन्म में मिल गया। इन 2,000 कर्मों का नाम है *प्रारब्ध कर्म।* और इसी जीवन में किये 8,000 कर्म उसके खाते में जमा हो गए। इसका नाम है *संचित कर्म*। 
और जो जो कर्म वह प्रतिदिन करता जाता है, जब तक वे वे कर्म पूर्ण नहीं हुए, (जैसा कि ऊपर रोटियाँ बनाने का उदाहरण दिया था),तब तक वे *क्रियमाण कर्म* के नाम से कहे जाते हैं।

(शेष अगले भाग में)

*लेखक -- स्वामी विवेकानंद परिव्राजक, निदेशक, दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड़, गुजरात।*
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