कर्मफल के नियम भाग -3
(वेद मनुस्मृति सत्यार्थ प्रकाश न्याय दर्शन आदि वैदिक शास्त्रों के आधार पर)
कर्मफल अथवा न्याय, दोनों का एक ही अभिप्राय है। कर्मफल या न्याय के कुछ सामान्य नियम हैं, जिनसे हमें यह विषय कुछ ठीक प्रकार से समझ में आ सकता है।
*मैं पहले भी अनेक बार निवेदन कर चुका हूं कि यह कर्म फल का विषय बहुत कठिन गहरा और विस्तृत है। इसे पूरा ठीक-ठीक तो केवल ईश्वर ही जानता है। ऋषियों ने वेद आदि शास्त्रों को पढ़कर गंभीर चिंतन मनन करके कुछ मोटे स्तर पर इस विषय को जाना है। मैंने भी उन वेदों और ऋषियों के ग्रंथों को लंबे समय तक गंभीरतापूर्वक पढ़ा सुना जाना समझा और पढ़ाया है। उन्हीं के आधार पर मैं यह छोटा सा लेख प्रस्तुत कर रहा हूं।*
कर्मफल के सिद्धान्त
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(1) अच्छे कर्म का अच्छा फल मिलता है। जैसे यज्ञ करना, दान देना, माता पिता की सेवा करना, ईश्वर की उपासना करना, प्राणियों की रक्षा करना, कमजोर लोगों की मदद करना इत्यादि, ये सब अच्छे कर्म हैं। इन सब अच्छे कर्मों का अच्छा फल अर्थात सुख ही मिलता है।
(2) बुरे कर्म का बुरा फल मिलता है। जैसे झूठ बोलना, चोरी करना, धोखा देना, अन्याय करना, व्यर्थ में किसी को धमकाना, लूट मार करना, हत्या करना, आतंकवाद फैलाना इत्यादि, ये सब बुरे कर्म हैं। इन बुरे कर्मों का फल बुरा अर्थात दुख ही मिलता है।
(3) पहले कर्म किया जाता है, बाद में फल मिलता है। जैसे विद्यार्थी पहले परीक्षा देता है, उसके बाद ही उसको नंबर दिए जाते हैं। इस प्रकार से कर्म पहले किया जाएगा, और फल बाद में दिया जाएगा।
(4) जितना कर्म किया जाता है, उसी हिसाब से फल मिलता है। जैसे एक व्यक्ति एक महीना नौकरी करता है, तो उसे एक महीने का ही वेतन दिया जाता है। यदि वह 10 वर्ष नौकरी करता है, तो उसे 10 वर्ष का वेतन दिया जाता है।
(5) फल, सदा कर्म कर्ता को ही मिलता है, किसी दूसरे को नहीं। (दूसरे व्यक्ति पर कर्म का परिणाम और प्रभाव तो हो सकता है।) जैसे जो व्यक्ति चोरी करता है, जेल में रहने का दंड उसी को मिलता है। उसके परिवार के लोग, चोर के जेल जाने से दुखी तो होते हैं, परंतु यह उसके परिवार वालों के कर्म का फल नहीं है। यह तो चोर के कर्म का प्रभाव है, जो उसके परिवार वालों को भोगना पड़ रहा है।
(6) कर्मफल में माफी या कैंसिलेशन नहीं होती। माफी का अर्थ है, अपराध करने पर, कुछ भी दंड न देना। जैसे चोर ने चोरी कर ली, और न्यायालय ने उसको कुछ भी दंड नहीं दिया, बिना दंड दिए, यूँ ही छोड़ दिया। इसको कहते हैं *माफी।* तो किसी भी कर्म फल की माफी नहीं होती। यदि कर्म किया है, तो फल अवश्य ही भोगना पड़ेगा।
दूसरी बात है, कैंसिलेशन। जैसे कोई व्यक्ति यह सोचे, कि मैं 10 कर्म अच्छे करूंगा, 4 बुरे कर्म करूँगा। तो 10 में से 4 कैंसिल हो जाएंगे। बाकी बचेंगे 6 अच्छे कर्म। इन 6 अच्छे कर्मों का मुझे अच्छा फल सुख मिल जाएगा। इसे कहते हैं *कैंसिलेशन।* तो ऐसा भी नहीं होगा। यदि ऐसा हो जाए, तो कर्मफल व्यवस्था या न्याय समाप्त हो जाएगा। ( अर्थात अच्छे कर्मों में से बुरे कर्म, या बुरे कर्मों में से अच्छे कर्म, घटाए नहीं जाएंगे। दोनों का अलग अलग फल मिलेगा। ऊपर लिखे नियम 1 और 2 देखें।)
(7) अनजाने में की गई गलती का दण्ड अपेक्षाकृत कम तथा जानबूझकर की गई गलती दंड का अधिक मिलता है। जैसे किसी बच्चे से घर में अनजाने में कांच का गिलास टूट गया, तो माता-पिता उसका अपराध कम मानकर उसे कम मात्रा में दंड देते हैं। और यदि वह बच्चा जानबूझकर गिलास तोड़ दे, तो माता-पिता उससे अधिक नाराज होते हैं, और उसे अधिक दंड देते हैं।
(8) कर्म को जाने बिना ठीक-ठीक फल नहीं दिया जा सकता। जैसे न्यायालय में न्यायाधीश महोदय, जब तक पूरा मुकदमा सुनकर अपराध एवं अपराधी को जान न लें, तब तक वे ठीक प्रकार से न्याय नहीं कर सकते , उस अपराध का दंड ठीक प्रकार से नहीं दे सकते।
(9) न्यायकर्ता या फलदाता को यह भी जानकारी होनी जरूरी है कि किस कर्म का क्या और कितना फल दिया जाए! जैसे अपराध को जानने के बाद उसका ठीक-ठीक फल देने के लिए न्यायाधीश महोदय को भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code) का ज्ञान भी ठीक ठीक होना चाहिए। तभी वे ठीक न्याय से कर्म का फल दे सकते हैं।
(10) कर्म का फल अधिकारी व्यक्ति ही देगा, हर कोई व्यक्ति नहीं देगा। जैसे अपराधी को दंड देने का अधिकार न्यायाधीश महोदय को है , सड़क पर चलने वाले हर व्यक्ति को, अपराधी को दंड देने का अधिकार नहीं है।
(जो लोग सड़क पर ही चोर को पकड़कर पीटना आरंभ कर देते हैं, यह अनधिकार चेष्टा है। जनता, चोर को पकड़कर न्यायालय तक पहुंचा सकती है, इतना अधिकार उसको है, परंतु चोर को दंड देने का नहीं।)
*(शेष चर्चा, अगले भाग में।)*
*लेखक -- स्वामी विवेकानंद परिव्राजक, निदेशक, दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड़, गुजरात।*
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