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आत्मा साकार या निराकार - 7

*आत्मा साकार या निराकार, भाग - 7*

ओ३म्

   (पूर्वपक्ष - उत्तरपक्ष)

        पूर्वपक्ष वालों की बातों का उत्तर हम विनम्रतापूर्वक दे रहे हैं। वे भी कृपया हमारी बातों का उत्तर सभ्यता पूर्वक देवें। अपनी भाषा में संयम का प्रयोग करें। आपकी भाषा में अभी भी कटुता, असभ्यता चल रही है, यह अनुचित है। बुद्धिमान लोग आपकी भाषा से समझ रहे हैं, कि आपमें कितनी बुद्धि और सभ्यता है!

 पूर्वपक्ष - *वैसे जीव परमेश्वर से स्थूल और परमेश्वर जीव से सूक्ष्म होने से परमेश्वर व्यापक और जीव व्याप्य है।* - सत्यार्थ प्रकाश, सप्तम समुल्लास, पृष्ठ 160. 

उत्तरपक्ष - यदि इस वाक्य के प्रसंग को देखें, तो इस प्रसंग में सत्यार्थप्रकाश के पूर्वपक्षी ने प्रश्न किया है कि , *जिस जगह में एक वस्तु होती है, उस जगह में दूसरी वस्तु नहीं रह सकती। इसीलिए जीव और ईश्वर का संयोग संबंध हो सकता है, व्याप्य व्यापक नहीं।*

इस के उत्तर में महर्षि दयानंद जी (जीव और ईश्वर के व्याप्य व्यापक संबंध को सिद्ध करने के लिए कहते हैं,) *यह नियम (अर्थात् - जिस जगह में एक वस्तु होती है, उस जगह में दूसरी वस्तु नहीं रह सकती।) समान आकार वाले पदार्थों में घट सकता है, असमानाकृति में नहीं।* 
फिर आगे उदाहरण दिया है, - *जैसे लोहा स्थूल, अग्नि सूक्ष्म होता है, इस कारण से लोहे में विद्युत, अग्नि व्यापक हो कर एक ही अवकाश में दोनों रहते हैं।*
           तो महर्षि दयानंद जी ने यहां लोहे और अग्नि का उदाहरण दिया है, तथा इनका व्याप्य व्यापक संबंध भी बताया है। और यह भी कहा है कि समान आकार वाले पदार्थों में यह नियम घटता है, असमान आकृति में नहीं। क्योंकि जैसे असमान आकृति वाले छोटे बड़े पदार्थ लोहा और अग्नि, एक दूसरे में प्रविष्ट होकर व्याप्य व्यापक संबंध से रह सकते हैं। वैसे ही जीव और परमेश्वर भी असमान हैं, वे भी स्थूल सूक्ष्म होने से व्याप्य व्यापक संबंध से रह सकते हैं। परमेश्वर व्यापक और जीव व्याप्य हो जाएगा।
    यदि दृष्टांत के अनुसार आप यहाँ जीव के लिए प्रयोग किए गए *स्थूल* शब्द का अर्थ *साकार* करेंगे, तो *सूक्ष्म* शब्द से परमात्मा को भी *साकार* मानना होगा। क्योंकि उदाहरण में अग्नि और लोहा दोनों साकार हैं। उसी उदाहरण से साध्य को सिद्ध किया गया है। कि परमेश्वर और जीव दोनों उसी तरह से व्याप्य व्यापक भाव से रहते हैं, जैसे लोहा और अग्नि।
*इस प्रकार से तो परमेश्वर भी साकार बनेगा। क्या आप परमेश्वर को साकार मानेंगे?*
         यदि ईश्वर को साकार नहीं मानेंगे , तो सिद्ध हुआ कि जीव को भी साकार नहीं कह सकते। क्योंकि दोनों एक जैसे, अर्थात् चेतन हैं। जब दोनों चेतन हैं, तो दोनों निराकार हैं। *दो में से एक चेतन को आप निराकार स्वीकार करें और दूसरे को साकार कहें, यह तो अन्याय है।*

(आप वहाँ *स्थूल* शब्द से तो साकार अर्थ का ग्रहण करें; और *सूक्ष्म* शब्द से निराकार अर्थ करें, यह तो न्याय नहीं हुआ। क्योंकि एक ही पंक्ति में दो पदार्थों की तुलना करते हुए, दो प्रतिपक्षी शब्दों का भिन्न भिन्न मापदंड से अर्थ लेना अनुचित है। और शास्त्रीय परंपरा के विरुद्ध भी है। {जब दो पदार्थोंं की तुलना की जाती है तो एक ही मापदंड से तुलना होती है। जैसे भारी और हल्का, इन दो विरोधी पदार्थों की तुलना करनी हो, तो यही कहा जाएगा कि तरबूज 2 किलो का है और नींबू 50 ग्राम का है। ऐसी तुलना नहीं की जाती कि तरबूज 2 किलो का है और गौशाला 1 किलोमीटर दूर है। यहां तरबूज़ और गौशाला के मापदंड अलग-अलग हैं, इसलिए यहां ऐसी तुलना नहीं हो सकती।} ठीक इसी प्रकार से, जब स्थूल और सूक्ष्म, दोनों शब्द विरोधी हैं, तो तुलना में एक ही मापदंड से अर्थ लेना उचित है। अर्थात् या तो दोनों को साकार मानो, या दोनों को निराकार मानो, तभी तो ठीक तुलना होगी। जब स्थूल और सूक्ष्म, ये दोनों शब्द आकारबोधक हैं। तो इन दोनों शब्दों से आत्मा और परमेश्वर के लिए आकार अर्थ ही लिया जाएगा। यदि आप परमेश्वर को साकार मानने को तैयार नहीं हैं, चेतन होने से। तो आत्मा को भी आकार वाला नहीं कह सकते, चेतन होने से। तब दोनों के लिए अर्थ बदलना होगा, क्योंकि दोनों ही निराकार हैं।)
 
पूर्वपक्ष - यदि जीव और ईश्वर दोनों को निराकार माना जाए तो, फिर जीव और ईश्वर की क्या स्थिति है, जिस आधार पर उन्हें व्याप्य व्यापक संबंध से रहने वाला कहा गया है।
उत्तरपक्ष - जैसे ब्रह्मांड से बाहर शून्य अवकाश में, ईश्वर रहता है। वहां ईश्वर व्यापक है, और शून्य आकाश व्याप्य है। और वह अवकाश सूक्ष्म है, तथा निराकार है; स्थूल नहीं, साकार भी नहीं है। जब ब्रह्मांड से बाहर निराकार ईश्वर, निराकार अवकाश के साथ व्याप्य व्यापक संबंध से रह सकता है, तो इसी प्रकार से जीवात्मा और ईश्वर भी दोनों निराकार होते हुए व्याप्य व्यापक संबंध से क्यों नहीं रह सकते? इसके लिए आत्मा को साकार होने की कोई आवश्यकता नहीं है।
दूसरी बात - ( शास्त्रों में अर्थ करते समय एक परंपरा चलती है कि *जब किसी शब्द का मुख्य अर्थ लागू न होता हो, तो वहां गौण अर्थ लागू किया जाता है। जैसे - किसी ने कहा - आज बरसात होगी। इसका मुख्य अर्थ है बादल से पानी बरसेगा। और यदि बड़ा भाई अपने छोटे भाई के से कहे, कि "बच्चू आज तू घर तो चल, देखना आज बरसात होगी।"*
          तो इस प्रसंग में बरसात शब्द का मुख्य अर्थ, पानी बरसना, लागू नहीं हो रहा। तो यहां अर्थ बदलना पड़ेगा, और यह अर्थ करना होगा कि "आज जूते चप्पल की बरसात होगी. अर्थात् आज तुम्हारी पिटाई होगी।"
       इस प्रक्रिया को शास्त्रों में अभिधावृत्ति और लक्षणावृत्ति के नाम से कहा जाता है । अर्थात शब्द का मुख्य अर्थ लेना *अभिधावृत्ति* है। और जब वह लागू न हो तब गौण अर्थ लेना *लक्षणावृत्ति* है। यही प्रक्रिया हमें ईश्वर और जीव के संबंध में स्थूल तथा सूक्ष्म शब्दों का अर्थ करते समय स्वीकार करनी पड़ेगी। क्योंकि, जैसे ठंडा गर्म, ये शब्द स्पर्श गुण के वाचक हैं। लाल पीला नीला ये शब्द रूप गुण के वाचक हैं। इसी प्रकार से, स्थूल और सूक्ष्म शब्द, मुख्य अर्थ में आकार के वाचक हैं। जैसे लोहा स्थूल एवं अग्नि सूक्ष्म है। यदि ईश्वर और जीव को मुख्य अर्थ में स्थूल एवं सूक्ष्म मानें, तो ये शब्द आकार के वाचक होने से, ईश्वर तथा आत्मा, ये दोनों साकार मानने पड़ेंगे। जो कि महर्षि दयानंद जी के सिद्धांत के विरुद्ध होगा। अतः जीव और ईश्वर पर स्थूल एवं सूक्ष्म शब्दों का मुख्य अर्थ लागू नहीं होता । इसलिए यहां गौण अर्थ करके स्थूल एवं सूक्ष्म शब्द का अर्थ बदलकर यह करना होगा, कि *जो वस्तु समझने में सरल हो उसे स्थूल कहेंगे, और जो वस्तु समझने में कठिन हो उसे सूक्ष्म कहेंगे। तो जीव को समझना सरल है इसलिए उसको स्थूल कहेंगे। तथा ईश्वर को समझना कठिन है, इसलिये उसको सूक्ष्म कहेंगे)।*

       पूर्वपक्षी द्वारा प्रस्तुत इस वाक्य में भी साकार शब्द भी नहीं है, स्थूल शब्द है। यहाँ भी आपके द्वारा सिर्फ यह कहा जा रहा है, कि जीव स्थूल होने से साकार है। इस प्रकार से स्थूल का अर्थ साकार करना, यह महर्षि दयानंद जी के अभिप्राय के विरुद्ध है। क्योंकि महर्षि दयानंद सरस्वती जी की दृष्टि में स्थूल एवं सूक्ष्म शब्द का प्रयोग, आकार से भिन्न अर्थ में भी किया गया है। विशेष रूप से निराकार द्रव्यों के संबंध में तो स्थूल का अर्थ साकार हो ही नहीं सकता , *क्योंकि वह द्रव्य चेतन होने से पहले ही निराकार है। तो उसे साकार कहना, यह तो महर्षि दयानंद जी के साथ ही अन्याय है।* महर्षि दयानंद जी की दृष्टि में ईश्वर और जीव दोनों चेतन और निराकार हैं। जब दोनों निराकार हैं, तो उनमें लोहा और अग्नि जैसे साकार द्रव्यों के तुल्य स्थूलता सूक्ष्मता नहीं हो सकती।

पूर्वपक्ष - तो फिर यहां, *जीव स्थूल है,* इसका अर्थ आप क्या करेंगे?

उत्तरपक्ष - महर्षि दयानंद सरस्वती जी स्थूल और सूक्ष्म शब्दों का प्रयोग अन्य अर्थ में भी करते हैं। जैसे उन्होंने सत्यार्थप्रकाश के 9वें समुल्लास में श्रवण चतुष्टय के प्रसंग में लिखा है। *विशेष ब्रह्मविद्या के सुनने में अत्यंत ध्यान देना चाहिए कि यह सब विद्याओं में सूक्ष्म विद्या है।*
         अब यहां "सूक्ष्म विद्या", शब्द का अर्थ, आकार में पतली विद्या तो नहीं बनता। क्योंकि विद्या द्रव्य नहीं, बल्कि गुण है। जबकि पतले मोटे या सूक्ष्म स्थूल तो द्रव्य होते हैं। जैसे अग्नि और लोहा आदि। *इसलिये यहाँ पर "सूक्ष्म विद्या" शब्द का अर्थ "समझने में कठिन विद्या" करना होगा।* इस से यह अभिप्राय निकलता है, कि ईश्वर को समझना अधिक कठिन है। इस अर्थ में ईश्वर सूक्ष्म है। तथा जीव को समझना, ईश्वर की तुलना में सरल है। इस अर्थ में जीव स्थूल है। आकार तो दोनों में से किसी में भी नहीं है। इसलिए जीव को स्थूल शब्द से साकार बताना असिद्ध और असंगत है।

लोक व्यवहार में भी सरल विषय को कहा जाता है, *स्थूल विषय या मोटी मोटी बातें।* और कठिन विषय को *सूक्ष्म विषय या बारीक बात* के नाम से कहा जाता है।

तीसरी बात - सत्यार्थप्रकाश के सातवें समुल्लास में ही महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने जीव के गुण कर्म बताते हुए लिखा है , *ये जीवात्मा के गुण परमात्मा से भिन्न हैं। इन्हीं से आत्मा की प्रतीति करनी, क्योंकि वह स्थूल नहीं है।*
   यहां तो महर्षि जी ने स्पष्ट ही लिखा है कि *जीव स्थूल नहीं है।* सत्यार्थप्रकाश में इस स्थल पर लिखे पूरे प्रसंग को देखेंगे तो यही अर्थ बनेगा कि जीव स्थूल नहीं है, अर्थात् साकार नहीं है। क्योंकि आप उसको, खाना पीना चलना फिरना इत्यादि शरीर में दिखने वाले स्थूल लक्षणों से ही जान सकते हैं। साकार न होने से आंखों से नहीं जान सकते।
इसलिए यह बात इन प्रमाणों से अच्छी प्रकार से सिद्ध होती है कि *आत्मा साकार नहीं, बल्कि निराकार है.* 
       स्वाध्यायशील बुद्धिमान पाठक गण इन प्रमाणों को देखें और निष्पक्ष भाव से विचार करें। यदि कोई शंका बने, तो नम्रता से सभ्यता से पूछ सकते हैं। यदि कोई बिना तर्क प्रमाण के व्यर्थ में खंडन मंडन करेगा, तो उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया जाएगा, और न ही उसका कोई उत्तर दिया जाएगा।

- स्वामी विवेकानंद परिव्राजक - दर्शन योग महाविद्यालय 

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