Skip to main content

आत्मा साकार या निराकार - 6

*आत्मा साकार या निराकार, भाग - 6*

ओ३म्

   (पूर्वपक्ष - उत्तरपक्ष)
पूर्वपक्ष वालों की बातों का उत्तर हम विनम्रतापूर्वक दे रहे हैं। वे भी या तो हमारी बातों का उत्तर सभ्यता पूर्वक देवें। अपनी भाषा में संयम का प्रयोग करें। आपकी भाषा में यदि उत्तेजना है, तो बुद्धिमान लोग आपकी भाषा से ही समझ लेंगे, कि आपमें कितनी बुद्धि और सभ्यता है! अथवा निष्पक्ष भाव से चिंतन मनन करके सत्य को हृदयंगम करें। 


 पूर्वपक्ष - *जिसका आकार कोई भी नहीं और न कभी शरीर धारण करता है, इसलिये परमेश्वर का नाम निराकार है।* (-सत्यार्थ प्रकाश, प्रथम समुल्लास, ईश्वर नाम संख्या 67.)

  उत्तरपक्ष - विषय था, *जीवात्मा साकार है या निराकार?* पूर्वपक्षी को प्रमाण तो वह देना चाहिए था, जिससे जीवात्मा साकार सिद्ध होता। परंतु प्रमाण दे रहे हैं, ईश्वर के निराकार होने का। अब आप विचार कीजिये, क्या यह प्रमाण आत्मा को साकार सिद्ध करता है? नहीं करता। प्रसंग से बाहर की बात कहने से, इस प्रमाण से मूल विषय की सिद्धि में कोई सहायता नहीं मिलती।

दूसरी बात- फिर भी पूर्वपक्षी ने आत्मा को साकार सिद्ध करने के लिए, जो भी प्रमाण दिया है, इस पर भी विचार कर लेते हैं। 
        *इस वचन में दो बातें कही हैं। एक तो, ईश्वर का कोई आकार नहीं है। और दूसरी बात, वह शरीर धारण नहीं करता, इसलिए ईश्वर निराकार है।*
      इनमें जो पहली बात कही है, वह तो निराकार शब्द का अर्थ ही है। वह तो कोई कारण नहीं है। दूसरी बात को यदि निराकार होने का कारण माना जाए, कि वह शरीर धारण नहीं करता, इसलिए निराकार है। 
      यहाँ पर यदि पूर्वपक्षी कहे कि, "ईश्वर शरीर को धारण नहीं करता, इसलिए निराकार है। तो अर्थापत्ति से यह सिद्ध हुआ कि जीवात्मा शरीर धारण करता है, इसलिए वह साकार है।"
        तो हमारा कहना यह है कि, *यदि शरीर धारण न करने से कोई वस्तु निराकार सिद्ध होती है, तो प्रकृति और जगत् के पदार्थ लोहा लकड़ी पृथ्वी जल अग्नि आदि भी शरीर धारण नहीं करते, तो ये सब भी निराकार होने चाहिएँ। क्या ये सब पदार्थ निराकार हैं?* बिल्कुल नहीं। प्रकृति आदि ये सब पदार्थ तो साकार हैं। इसलिये यह अर्थापत्ति ठीक नहीं है। इससे आत्मा साकार सिद्ध नहीं होता।
     वास्तव में पूर्वपक्षी द्वारा दिया गया यह उत्तर, न्याय दर्शन के अनुसार अर्थापत्तिसमा जाति का प्रयोग है। अर्थात इसमें चालाकी से सत्य का खंडन किया गया है। न्यायदर्शन के सूत्र 5/1/21 में अर्थापत्तिसमा जाति (चालाकी) का उल्लेख है। 
      *इसमें व्यक्ति अपने पक्ष की सिद्धि में कुछ भी नहीं कहता, किसी दूसरे वचन को लेकर सिर्फ उस वाक्य को उलट देता है, और अर्थापत्ति का नाम लेकर, सत्य का खंडन करता है। इसको अर्थापत्तिसमा जाति = चालाकी कहते हैं।* 
      यहां पर पूर्वपक्षी ने ईश्वर के संबंध में कहे गए वाक्य को केवल उलट दिया है, तथा उसे जीवात्मा के लिए लागू कर दिया। और अपने पक्ष (आत्मा साकार है), की सिद्धि में कुछ भी नहीं कहा। इसलिए यह अर्थापत्तिसमा जाति है। और चालाकी से किया गया, सत्य का अनुचित खंडन है। इससे आत्मा साकार सिद्ध नहीं होता।

(वास्तव में यह अर्थापत्ति भी नहीं है, बल्कि अर्थापत्ति का भ्रम है। पूर्वपक्षी को अर्थापत्ति में भ्रम कैसे हुआ? *पूर्वपक्षी ऐसा समझता है, कि किसी वाक्य को मात्र उलट दो, इसी का नाम अर्थापत्ति है।* जबकि यह सत्य नहीं है। किसी वाक्य को मात्र उलट देना, इतना ही अर्थापत्ति प्रमाण का स्वरूप नहीं है। *अर्थापत्ति से जो बात प्राप्त होती है वह, वाक्य को उलटने के साथ साथ, प्रत्यक्ष शब्द आदि अन्य प्रमाणों के अनुकूल भी सिद्ध होनी चाहिए। तभी वह अर्थापत्ति मानी जाती है। अन्यथा वह अर्थापत्ति का भ्रम है। {यह न्याय दर्शन का नियम है।}*
जैसे कि एक व्यक्ति ने कहा कि *भारी पत्थर पहाड़ से नीचे गिरते हैं.* अब कोई इसको मात्र उलट कर बोले कि *हल्के पत्थर पहाड़ के ऊपर चढ़ते हैं.* यह तो कोई अर्थापत्ति नहीं बनी। क्योंकि यह बात प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के विरुद्ध है। ठीक अर्थापत्ति इस प्रकार से होती है । किसी ने कहा, *तत्व ज्ञान से मोक्ष होता है.* तो इसकी अर्थापत्ति यह बनेगी कि *मिथ्या ज्ञान से बंधन होता है।* यह अर्थापत्ति ठीक है, क्योंकि यहाँ वाक्य को केवल उलटमात्र नहीं दिया, बल्कि उलटने के साथ साथ, यह बात प्रत्यक्ष, शब्द आदि प्रमाणों के अनुकूल भी है, और सब ऋषियों ने स्वीकार भी की है।)

         *इसलिए आत्मा को साकार सिद्ध करने के लिए जो प्रमाण पूर्वपक्षी ने प्रस्तुत किया है, = (जिसका आकार कोई भी नहीं और न कभी शरीर धारण करता है, इसलिये परमेश्वर का नाम निराकार है।) इससे आत्मा साकार सिद्ध नहीं होता।*
सत्य तो यही है कि, *आत्मा के जो गुण ऋषियों ने बताए हैं, इच्छा द्वेष प्रयत्न ज्ञान आदि, ये लोहा लकड़ी आदि किसी भी साकार वस्तु के साथ मेल नहीं खाते, बल्कि ये इच्छा आदि गुण चेतन ईश्वर के साथ मेल खाते हैं, इसलिये चेतन आत्मा, चेतन ईश्वर के समान निराकार है।*

             स्वाध्यायशील बुद्धिमान पाठक गण इन प्रमाणों को देखें और निष्पक्ष भाव से विचार करें। यदि कोई शंका बने, तो नम्रता से सभ्यता से पूछ सकते हैं। यदि कोई बिना तर्क प्रमाण के व्यर्थ में खंडन मंडन करेगा, तो उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया जाएगा, और न ही उसका कोई उत्तर दिया जाएगा।


- स्वामी विवेकानंद परिव्राजक - दर्शन योग महाविद्यालय 

Comments

Popular posts from this blog

वैदिक प्राणायाम

वैदिक प्राणयाम ओ३म् प्राणायाम जो है दोस्तों इसके बारे में काफी सारी भ्रांतियां भी हैं और कुछ विशेष जानकारियां जो कि आम साधारण मनुष्य को नहीं साधारण मनुष्य तो यही सोचता है कि अनुलोम विलोम, कपालभाति, यही प्राणायाम होता है। जबकि ये हठ योग की क्रियाएं है मेरा मकसद इस लेख के माध्यम से आपको वैदिक प्राणायाम की जानकारी देना ही होगा। विशेष – बिना यम नियमो के प्राणायाम का फायेदा पूरा नही मिलता. जो भी स्त्री-पुरुष ब्रह्मचर्य के रास्ते में आगे बढ़ना चाहते हैं उन्हें तो सिर्फ और सिर्फ वैदिक प्राणायाम ही करने चाहिए जिस प्रकार से ऋषि पतंजलि ने पतंजलि योगदर्शन में बताया है। महर्षि मनु जी ने मनुस्मृति में बताया है . ऋषि दयानंद जी ने सत्यार्थ प्रकाश में बताया है. प्राणायाम क्या है Pranayam Kya Hai सांस लेने (शवास) ओर छोड़ने की गति (प्रश्वाश) को रोकना ही प्राणायाम कहलाता है। श्वास का अर्थ होता है भीतर वायु को ले जाना और प्रश्वास का अर्थ होता है भीतर से वायु को बाहर निकाल देना। प्राणायाम शब्द दो शब्दों के मेल से योग से बनता है प्राण+आयाम प्राण श्वास और प्रशवास का नाम होता है। और जो यह आयाम शब्द है इसका अर...

नमस्ते ही क्यों?

अभिवादन के लिए उत्तम शब्द नमस्ते जी.🙏 “नमस्ते” शब्द संस्कृत भाषा का है। इसमें दो पद हैं – नम:+ते । इसका अर्थ है कि ‘आपका मान करता हूँ।’ संस्कृत व्याकरण के नियमानुसार “नम:” पद अव्यय (विकाररहित) है। इसके रूप में कोई विकार=परिवर्तन नहीं होता, लिङ्ग और विभक्ति का इस पर कुछ प्रभाव नहीं। नमस्ते का साधारण अर्थ सत्कार = सम्मान होता है। अभिवादन के लिए आदरसूचक शब्दों में “नमस्ते” शब्द का प्रयोग ही उचित तथा उत्तम है।  नम: शब्द के अनेक शुभ अर्थ हैं। जैसे - दूसरे व्यक्ति या पदार्थ को अपने अनुकूल बनाना, पालन पोषण करना, अन्न देना, जल देना, वाणी से बोलना, और दण्ड देना आदि। नमस्ते शब्द वेदोक्त है। वेदादि सत्य शास्त्रों और आर्य इतिहास (रामायण, महाभारत आदि) में ‘नमस्ते’ शब्द का ही प्रयोग सर्वत्र पाया जाता है।  सब शास्त्रों में ईश्वरोक्त होने के कारण वेद का ही परम प्रमाण है, अत: हम परम प्रमाण वेद से ही मन्त्रांश नीचे देते है :- नमस्ते                        परमेश्वर के लिए 1. - दिव्य देव नमस्ते अस्तु॥ – अथर्व० 2/2/1   ...

कर्मफल सिद्धांत - 5

कर्मफल के नियम भाग - 5 कर्म के विषय में अगली जानकारी--  --------------------------------------------- *कर्मों के प्रकार।* मूल रूप से कर्म दो प्रकार के होते हैं, और विस्तार से चार प्रकार के।  मूल दो प्रकार ये हैं -- निष्काम कर्म और सकाम कर्म। 1- *निष्काम कर्म उन्हें कहते हैं , जो शुभ कर्म मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से किए जाते हैं।* जैसे वेद आदि उत्तम शास्त्र पढ़ना पढ़ाना, ईश्वर का ध्यान करना, सत्य बोलना, सेवा करना परोपकार करना, दान देना इत्यादि । 2- सकाम कर्म - *और जो शुभ अशुभ कर्म सांसारिक सुख (धन सम्मान प्रसिद्धि आदि प्राप्त करने) के उद्देश्य से किए जाते हैं, वे सकाम कर्म कहलाते हैं।*  ये सकाम कर्म तीन प्रकार के होते हैं। (1) शुभ (2) अशुभ और (3) मिश्रित। 1- शुभ कर्म - जिन कर्मों के करने से अपना भी सुख बढ़े, और दूसरों का भी। और वेदों में उनके करने का विधान किया हो, वे शुभ कर्म कहलाते हैं। जैसे यज्ञ करना, वेदप्रचार करना, ईश्वर की उपासना करना, किसी रोगी की सेवा करना, किसी समाज सेवा के कार्य में दान देना, सत्य बोलना, मीठा बोलना, अच्छा सुझाव देना, शाकाहारी भोजन खाना आदि। 2- ...