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आत्मा साकार या निराकार - 5

*आत्मा साकार या निराकार, भाग - 5*

ओ३म्

   (पूर्वपक्ष - उत्तरपक्ष)

*आत्मा निराकार है, साकार नहीं है।* इस बात को हम अपने लेख के पिछले 4 भागों में प्रमाण और तर्क से अच्छी प्रकार से सिद्ध चुके हैं। फिर भी कुछ लोग, जो आत्मा को साकार मानते हैं, वे भी अपने कुछ तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
       लेख के इस भाग में हम उनके विचारों के उत्तर देंगे । तथा कुछ प्रश्न हम अपनी ओर से भी उनसे पूछेंगे।
    आत्मा को साकार मानने वालों का पक्ष हम *पूर्वपक्ष* के नाम से प्रस्तुत करेंगे। और हमारा पक्ष हम *उत्तरपक्ष* के नाम से प्रस्तुत करेंगे।
       यदि आत्मा को साकार मानने वाले लोग ईमानदारी बुद्धिमत्ता और निष्पक्ष भाव से इन बातों पर विचार करेंगे, तो हमें आशा है, उनको भी यह बात ठीक प्रकार से समझ में आ जाएगी, कि *आत्मा साकार नहीं है, बल्कि निराकार ही है।*

 *हठ दुराग्रह का तो कोई समाधान नहीं है।*

   पूर्वपक्ष वालों की बातों का उत्तर हम विनम्रतापूर्वक दे रहे हैं। वे भी कृपया हमारी बातों का उत्तर सभ्यता पूर्वक देवें। अपनी भाषा में संयम का प्रयोग करें। आपकी भाषा में यदि उत्तेजना है, तो बुद्धिमान लोग आपकी भाषा से ही समझ लेंगे, कि आपमें कितनी बुद्धि और सभ्यता है!

1- पूर्वपक्ष - *आत्मा साकार है। एकदेशी होने से।*
  उत्तरपक्ष - *आपका हेतु अनैकांतिक होने से हेत्वाभास है।* अनैकांतिक का अर्थ है, दोनों पक्षों में जाने वाला हेतु। हेत्वाभास का अर्थ है, जो हेतु अर्थात् कारण बताया गया है, वह ठीक नहीं है, परंतु हेतु जैसा प्रतीत होता है। अर्थात् गलत कारण है। तो आपने जो हेतु बताया *एकदेशी होने से* , यह कारण दोनों पक्षों में जाता है। *जैसे कि, नींबू एकदेशी है, वह साकार है। जबकि प्रकृति व्यापक है, वह भी साकार है।*
 तो एकदेशी वस्तुएं भी साकार हैं और व्यापक वस्तुएं भी साकार हैं। *इस प्रकार से यह हेतु दोनों पक्षों में जाता है, इसलिए यह हेतु गलत है। कि एकदेशी होने से साकार है।* 
      जब हेतु गलत होता है, तो वह साध्य की सिद्धि नहीं कर पाता। इसलिए आपका पक्ष सिद्ध नहीं होता कि *एकदेशी होने से, आत्मा साकार है।*
        प्रकृति साकार है, और सारे ब्रह्मांड में व्यापक है। इन दोनों बातों को महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने सत्यार्थ प्रकाश में स्वीकार किया है। आप देख सकते हैं।
*वह प्रकृति रूप होने से सर्वत्र विभु और सब जीवों के लिए एक है।* (सत्यार्थप्रकाश 9वाँ समुल्लास, पृष्ठ 201.)
इस वचन में महर्षि दयानंद जी ने प्रकृति को विभु अर्थात् पूरे ब्रह्मांड में व्यापक माना है। ब्रह्मांड का अर्थ है, जहां तक ये लोक लोकांतर फैले हुए हैं। अर्थात जहां तक आकाश गंगाएँ फैली हुई हैं, वहां तक के क्षेत्र को ब्रह्मांड कहते हैं। वहां तक प्रकृति (सत्त्व रज तम) प्रत्येक वस्तु में विद्यमान है। 

*और जो स्थूल होता है, वह प्रकृति और परमाणु जगत् का उपादान कारण है। और वे सर्वथा निराकार नहीं, किन्तु परमेश्वर से स्थूल और अन्य कार्य से सूक्ष्म आकार रखते हैं।* -(सत्यार्थ प्रकाश, अष्टम समुल्लास, पृष्ठ 177.)
महर्षि जी ने इस वचन में प्रकृति में सूक्ष्म आकार को स्वीकार किया है।
इसलिये आपका कथन सत्य नहीं है। कि *एकदेशी होने से आत्मा साकार है। क्योंकि प्रकृति व्यापक होते हुए भी साकार है।*
      कृपया सभी लोग इस बात पर शुद्ध मन से विचार करें, और सत्य को स्वीकार करें, कि *आत्मा साकार नहीं, बल्कि निराकार है।*
यह सारी चर्चा सत्य को समझने समझाने के उद्देश्य से की जा रही है, व्यर्थ लड़ाई झगड़ा करने के उद्देश्य से नहीं। क्योंकि ऐसा करना बुद्धिमता और मनुष्यता नहीं है।

- स्वामी विवेकानंद परिव्राजक - दर्शन योग महाविद्यालय 

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