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आत्मा साकार या निराकार - 3

*आत्मा साकार है या निराकार, भाग - 3.*

ओ३म्

      *आत्मा निराकार है, साकार नहीं।* इस बात को हम अपने लेख के पिछले दो भागों में प्रमाण और तर्क से अच्छी प्रकार से सिद्ध चुके हैं। फिर भी आत्मा को साकार मानने वाले लोग गलत बातों का प्रचार करते रहते हैं। उनके निराकरण के लिए, तथा इस विषय में भ्रांतियां न फैलें, इस उद्देश्य से, आत्मा को निराकार सिद्ध करने वाले कुछ और प्रमाण व तर्क भी यहाँ प्रस्तुत किये जाते हैं।


1 - जैसे गंध गुण की परिभाषा है कि "जो नासिका इंद्रिय से जाना जाता है, वह गंध है।" स्पर्श गुण की परिभाषा है कि "जो त्वचा इंद्रिय से जाना जाता है, वह स्पर्श है।" 
इसी प्रकार से आकार गुण की परिभाषा पर भी हमें विचार करना होगा , जिस से हम इस बात का निर्णय कर सकें , कि *आत्मा साकार है या निराकार?*
          व्याकरण शास्त्र की दृष्टि से आकार और आकृति शब्दों का एक ही अर्थ है। 
साकार शब्द का अर्थ है आकार गुण सहित पदार्थ। और निराकार शब्द का अर्थ है आकार गुण से रहित पदार्थ।
अर्थात जो पदार्थ आकार गुण से सहित सिद्ध होगा, उसे साकार कहा जाएगा ; और जो पदार्थ आकार गुण से रहित सिद्ध होगा, उसे निराकार कहा जाएगा।

"दयानंद शास्त्रार्थ संग्रह तथा विशेष शंका समाधान" नामक पुस्तक (प्रकाशक - आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट) के पृष्ठ 119 पर आकृति के संबंध में महर्षि दयानंद सरस्वती जी की मान्यता लिखी है।
     *आकृति दो प्रकार की होती है - एक ज्ञान से ग्रहण होती है और एक चक्षु आदि इंद्रियों से। कारण में ही आकृति की स्थिति है, परंतु वह इंद्रियों द्वारा ग्रहण नहीं होती। क्योंकि जो सूक्ष्म वस्तु होती है, जब वह स्वयं ही दिखाई नहीं देती तो उसका आकार क्या दिखाई देगा? और जो कारण में आकृति न हो तो कार्य में नहीं आ सकती, क्योंकि जो कारण के गुण हैं वही कार्य में आते हैं।*
          जो महर्षि दयानंद जी की उक्त आकृति की परिभाषा है , वह कारण कार्य द्रव्यों पर लागू होती है । प्रकृति में आकृति आँखों से सिद्ध न भी हो, तो भी अनुमान ज्ञान से सिद्ध हो जाती है, क्योंकि वह जगत का उपादान कारण है । परंतु जीवात्मा तो किसी वस्तु का उपादान कारण भी नहीं है। इसलिए आत्मा के विषय में तो आकृति, अनुमान ज्ञान से भी सिद्ध नहीं हो सकती।
इसलिये महर्षि जी के उक्त कथन से भी यही सिद्ध होता है कि *आत्मा निराकार है, साकार नहीं।*
          यह तो उनकी केवल प्रतिज्ञा मात्र है कि - आत्मा में आकार है। आत्मा में आकार चक्षु आदि इंद्रियों से, या अनुमान ज्ञान से कैसे सिद्ध होता है ? वह सिद्ध तो कीजिये!


2- वैशेषिक दर्शन में रूप रस गंध स्पर्श संख्या परिमाण आदि 24 गुण बतलाए हैं। इनमें आकार गुण का नाम नहीं है। तो हमें इन्हीं 24 में से ही ढूंढना होगा कि वह कौन सा गुण है, जिसके अंतर्गत इस आकार गुण को लिया जा सकता है। इन 24 में कहीं ना कहीं तो आकार गुण का समावेश करना होगा, क्योंकि वैदिक शास्त्रों में ऋषियों ने आकार या आकृति शब्दों का प्रयोग प्रकृति आदि द्रव्यों के संबंध में किया है।
हमारी दृष्टि में इन 24 गुणों में से, *रूप गुण* ऐसा है जिसको हम आकार गुण के नाम से कह सकते हैं। क्योंकि सब वैदिक शास्त्रों में जहां भी (निराकार या साकार पदार्थों का प्रसंग है, वहाँ पर) *आकार या आकृति शब्दों का प्रयोग है, वह रूप गुण के अर्थ में ही किया गया है।* ऋषियों ने भौतिक जड़ पदार्थों के संबंध में आकार शब्द का प्रयोग किया है, जीव और ईश्वर के लिए नहीं। और वैदिक साहित्य के अनुसार प्रकृति आदि जड़ पदार्थों में रूप गुण विद्यमान है। इसलिये आकार शब्द का अर्थ रूप गुण ही बनता है। ईश्वर के लिए निराकार शब्द का प्रयोग किया है। ईश्वर में रूप गुण नहीं है, इसे सभी जानते हैं।
      अतः वैशेषिक दर्शन में बताए गए 24 गुणों में से जो *रूप गुण* है उसी का नाम *आकार गुण* समझना चाहिए।
       न्याय वैशैषिक आदि दर्शन शास्त्रों में, जहां-जहां भी आत्मा के गुण ऋषियों ने बताए हैं, वहां पर इच्छा द्वेष आदि गुणों का उल्लेख तो किया है, परंतु रूप या आकार गुण का कथन कहीं भी नहीं किया। इससे सिद्ध होता है कि *आत्मा निराकार है, साकार नहीं।*


3- आकार = आकृति (न्याय दर्शन)
न्याय सूत्र 2/2/62 (किसी अन्य पुस्तक में 2/2/64) में आकृति की परिभाषा की गई है । 
आकृतिः तदपेक्षत्वात् सत्त्वव्यवस्थानसिद्धेः।।

अर्थात् गौ बकरी आदि शब्द का अर्थ है आकृति। क्योंकि आकृति के आधार पर ही प्राणियों का व्यवहार किया जाता है। जैसे, यह गौ है, यह बकरी है। ऐसा व्यवहार बिना आकृति को देखे सिद्ध नहीं होता। गौ के शरीर में अंगों की रचना भिन्न प्रकार की होती है। और बकरी के शरीर में अंगों की रचना भिन्न प्रकार की होती है। इसी शरीर की भिन्न रचना = आकृति के आधार पर ही गौ बकरी आदि शब्दों का व्यवहार होता है। तो आकृति का अर्थ हुआ गौ बकरी आदि के शरीर के अंगों की रचना से बना विशेष आकार = रूप = Shape.
इसी आकृति को ही आकार कहा जाता है। *क्या गौ बकरी जैसा या कोई भी आकार आत्मा में होता है? यदि नहीं होता, तो इससे सिद्ध है कि आत्मा निराकार है।*


4- अब व्याकरण शास्त्र की दृष्टि से देखें , तो महर्षि पाणिनि जी के व्याकरण के अनुसार भी आकार शब्द की सिद्धि इस प्रकार से है।
आ + कृ + घञ् = आकारः। (अष्टाध्यायी 3/3/18,19) इसका अर्थ संस्कृत भाषा के प्रामाणिक कोष वाचस्पत्यम् में लिखा है -- 
*आकारः = मूर्तौ, अवयवसंस्थानविशेषे च।* अर्थात् *आकार शब्द मूर्ति (रूपवान् पदार्थ) अर्थ में प्रयोग किया जाता है, और ऐसी वस्तु के लिए प्रयोग किया जाता है जिसमें अनेक अवयवों को मिलाकर विशेष रचना अर्थात् आकृति बनाई गई हो।*
       अब इस व्याकरण शास्त्र की दृष्टि के अनुसार भी देखिये। जो मूल प्रकृति है, (सत्त्व रज और तम) उसमें आकार है। वहां पर आकार शब्द का ऊपर बताया हुआ मूर्ति अर्थ लागू होगा। अर्थात उसमें अपनी सूक्ष्म आकृति है। यदि प्रकृति में आकार नहीं मानेंगे, तो उससे उत्पन्न जगत में आकार नहीं आ सकता, जो कि प्रत्यक्ष है। (नियम यही है कि कारण द्रव्य के गुण ही कार्य द्रव्य में प्रकट होते हैं । ) 
और मूल प्रकृति से जो जो पदार्थ उत्पन्न होंगे, मन बुद्धि इंद्रियां पंच महाभूत पृथ्वी जल अग्नि और मेज कुर्सी लोहा सोना चांदी इत्यादि, ये सब पदार्थ अनेक अवयवों को मिलाकर बनाए जाते हैं, इनमें भी सब में अपनी अलग अलग आकृति या आकार है, जो स्थूल पदार्थों में हमें आंखों से दिखता है। इसी का नाम रूप है। स्थूल पदार्थों में आकार आँखों से दिखता है और सूक्ष्म पदार्थों में अनुमान से जाना जाता है। यही दो प्रकार का आकार महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने भी बताया था, जिनका प्रमाण ऊपर लिखा है।
      तो इस प्रकार से यह सिद्ध हुआ कि आकार गुण सूक्ष्म या स्थूल जड़ पदार्थों में ही होता है। अब आत्मा तो चेतन पदार्थ है। इसलिए न तो उसमें प्रकृति के तुल्य सूक्ष्म आकार है। और न ही वह अवयवों से मिलकर बना है, इस कारण से आत्मा में पृथ्वी सूर्य आदि के तुल्य स्थूल आकार भी नहीं है। *इसलिए चेतन होने से आत्मा निराकार है, साकार नहीं।*


5 - द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया...।। ऋग्वेद 1/164/20.
(द्वा) जो ब्रह्म और जीव दोनों (सुपर्णा) *चेतनता और पालनादि गुणों से सदृश* (सयुजा) व्याप्य व्यापक भाव से संयुक्त (सखाया) परस्पर मित्रता युक्त सनातन अनादि हैं।....... स.प्र. 8वाँ समुल्लास।। पृष्ठ 172.

इस मंत्र की व्याख्या में महर्षि दयानंद जी ने ईश्वर और जीव को *चेतनता और पालनादि गुणों से सदृश*, कहा है।

इससे यह अभिप्राय स्पष्ट है, कि ईश्वर और जीव, दोनों चेतन हैं, और दोनों पालन करते हैं। ईश्वर संसार का पालन करता है और जीव अपने संतानों का पालन करता है। *जब पालन करने वाला ईश्वर चेतन है, और निराकार भी है। तो जीव भी पालन करने वाला चेतन होते हुए साकार कैसे हो जाएगा? उसे भी निराकार ही मानना चाहिए।* क्योंकि कोई भी लकड़ी लोहा आदि साकार वस्तु चेतन नहीं है, और वह ईश्वर के समान किसी का पालन भी नहीं कर सकती। 

इसलिए यह बात इन प्रमाणों से अच्छी प्रकार से सिद्ध होती है कि *आत्मा साकार नहीं, बल्कि निराकार है.* 
       स्वाध्यायशील बुद्धिमान पाठक गण इन प्रमाणों को देखें और निष्पक्ष भाव से विचार करें। यदि कोई शंका बने, तो नम्रता से सभ्यता से पूछ सकते हैं। यदि कोई बिना तर्क प्रमाण के व्यर्थ में खंडन मंडन करेगा, तो उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया जाएगा, और न ही उसका कोई उत्तर दिया जाएगा।

- स्वामी विवेकानंद परिव्राजक, दर्शन योग महाविद्यालय 

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